भारतीय सूफी-संत परम्परा में चन्देरी का योगदान

सर्वधर्म सदभाव भावना से लबरेज विशाल देश भारत उस खूबसूरत गुलदस्ते के समान है। जिसमें विभिन्न रंगों के विभिन्न खुशबू बिखेरने वाले फूल हमेशा महकते-खिलते रहते हैं। यह वही रंग- बिरंगे फूल है जिन्होंने हमारी बहुमूल्य प्राचीन भारतीय संस्कृति-संस्कार चरित्र निर्माण में अनेकता में एकता की सुगंध से महकाया है। आशय यह है कि भारतीय सामाजिक परिवेश में हमेशा से ऋषियों-मुनियों, साधु-महात्माओं, सूफी-संतों, महापुरुषों द्वारा प्रद्वत किए गए अमूल्य योगदान को कभी भी किसी भी स्तर पर भुलाया नहीं जा सकता है।


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मानव समाज में घुले-मिले यह वही फूल है जिन्होंने मानवता और विश्व बन्धुत्य, आध्यात्म एवं सूफी चिंतन की भावना को सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित कर हमारे महान देश भारत के मान-सम्मान को आगे बढ़ाया है। सादियों पूर्व महापुरुषों द्वारा बिखेरी गई मानवतारूपी वह अध्यात्म और चिंतन की बहाई गई धाराए आज भी मानव समाज को सिंचित करते हुए आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय, प्रेरणादायक और प्रासंगिक बनी हुई है।


ऐसे एक नहीं अनेक कारण है जिनके चलते सूफी-संतों महापुरुषों को भारतीय इतिहास साहित्य में विशेष उल्लेखनीय दर्जा प्रमुखता के साथ प्राप्त है। खासतौर से मध्यकालीन भारतीय परिवेश में जब सम्पूर्ण भारत में भक्ति आंदोलन एवं सूफी मत अपनेअपने चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हुए भारतीय मानव समाज में प्रेम-इंसानियत की बयार को बहा रहे थे।


एक ओर याद रखना होगा मावतावादी कबीर, महापुरुष गुरुनानक, रामानंद, रैदास, जयदेव, दाद, चैतन्य महाप्रभु, शंकराचार्य रामानुज आचार्य, वल्लभाचार्य इत्यादि तो वहीं दूसरी ओर याद रखना पड़ेगा महान सूफी संत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, ख्वाजा कुतुबुद्दीन चिश्ती, बाबा फरीद, निजामुद्दीन औलिया आदि को जिन्होंने पवित्र जीवन उच्च आचरण, मानव सेवाभाव को वरीयता प्रदान कर नर सेवा-नारायण सेवा मूल मंत्र को अपना कर मानव समाज में एक नए युग का सूत्रपात किया। जिसे मानव समाज ने भी सहर्ष अंगीकार किया। देखने वाली बात यह है कि आज जब की सब कुछ बदला-बदला सा है, नहीं बदला है तो वह है सूफी-संतों के प्रति आस्था, श्रद्धा विश्वास की आमधारणा जो सदियाँ व्यतीत उपरान्त ज्यों की त्यों बनी हुई हैं।


सबसे बड़ी बात यह है कि भक्ति आंदोलन एवं सूफी मत के सिद्धांत और शिक्षाओं के अलावा प्रस्तुत किया जाने वाला आचरण में कहीं-कहीं बहुत कुछ समानताएँ भी रहीं। जैसे ईश्वर को सर्वव्यापी मानना, सभी इंसानों को ईश्वर की संतान मानना, मानव-मानव में भेद न कर आपसी परस्पर प्रेम व्यवहार को बढ़ावा समाज में फैली कुरीतियों के पड़ने वाले दुष्परिणाम को समझाना इत्यादि ऐसे कारण है। जिसे समान रूप से प्रत्येक समाज, समुदाय ने स्वीकार ही नहीं किया बल्कि पूर्णतया प्रभावित होते हुए उन आदर्शों को अपने जीवन में अंगीकार किया।